लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी
भाग 46
देवयानी के मन में कच का प्रेम दिन प्रतिदिन बढ़ता चला गया । वह दिन रात कच की कल्पनाओं में डूबी रहने लगी । वह कच को लेकर भांति भांति के स्वप्न देखने लगी । कभी वह स्वप्न में देखती कि वह और कच दोनों चांदनी रात्रि में वन विहार कर रहे हैं । वह वृक्षों और लताओं की ओट में छुपी हुई है और कच उसे ढूंढ रहा है । ढूंढते ढूंढते कच उसे पुकार रहा है "यानी, तुम कहां हो यानी । कुछ बोलती क्यों नहीं ? मैं कबसे तुम्हें ढूंढ रहा हूं और तुम न जाने कहां छुपी बैठी हो ? अब सामने आ भी जाओ यानी" ।वह सोचती "याचना करते हुए कच कितना मासूम , सरल , निष्कलंक, भोला भाला लगता है ? उस समय उस पर इतना प्रेम उमड़ता है कि जी चाहता है कि उसके लिए मैं अपना सर्वस्व अर्पण कर दूं । पर ये कच पता नहीं मुझसे दूर क्यों भागता है ? वह आगे से तो कभी मुझे स्पर्श करता ही नहीं है और जब कभी मैं उसे स्पर्श करना चाहती हूं तभी झट से दूर हो जाता है वह । पता नहीं , उसके मन में क्या है ? मेरे हृदय में तो प्रेम का अथाह सागर उमड़ रहा है पर क्या कच के हृदय में भी वैसा ही सागर उमड़ता है क्या ? कैसे पता करूं" ? यही सोचती रहती थी वह ।
मनुष्य जब द्वंद्व की स्थिति में होता है तब वह स्वयं ही प्रश्न करता है और स्वयं ही उत्तर देता है । प्रश्न भी वह स्वयं ही गढ़ता है और प्रतिमंत्रण भी स्वयं ही सोचता है । द्वंद्व में घिरा हुआ मनुष्य विचित्र व्यवहार करता है । देवयानी स्वयं ही अपने मन से प्रश्न करती और स्वयं ही कच की ओर से प्रत्युत्तर भी देती । जब से उसके मन में कच के लिए प्रेम उमड़ने लगा है तब से उसके अधरों पर सदैव एक स्मित मुस्कान विराजमान रहने लगी है । प्रेम में चाहे और कुछ हो या नहीं हो, ये विशेषता तो है कि जिस व्यक्ति को प्रेम हो जाता है उसका अंग प्रत्यंग मुस्कुराने लगता है । देवयानी के न सिर्फ अधर ही मुस्कुराने लगे अपितु नयन भी मुस्कुराते थे । उसे अब बातें बनाना बहुत अच्छी तरह से आ गया था ।
प्रेम के भी कुछ सिद्धांत होते हैं । केवल कल्पनाओं में ही जीना किसे अच्छा लगता है ? जब तक प्रेमी के दर्शन ना हों, चैन कैसे आ सकता है ? प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि मिलन कैसे हो ? कच का अधिकांश समय कक्षा में व्यतीत होता है और शेष समय अपनी कुटिया पर । देवयानी दोनों जगह कच से मिल नहीं सकती थी और उससे मिले बिना भी वह रह नहीं सकती थी । ऐसी विकट परिस्थिति में भगवान अपने "भक्तों" का बहुत ध्यान रखते हैं । भगवान ने जब देखा कि कच और देवयानी का मिलन नहीं हो पा रहा है और देवयानी जल बिन मछली की तरह तड़प रही है तब उन्होंने अपना "प्रांगण" उनके लिए समर्पित कर दिया । भगवान के प्रांगण (मंदिर) में प्रेमी युगल बड़े प्रेम से मिल सकते हैं । भगवान के दर्शन के साथ साथ हृदय के देवता अथवा देवी के भी दर्शन हो जाते हैं । इससे श्रेष्ठ और क्या हो सकता है ? मंदिर जाने के लिए कोई भी माता / पिता इंकार नहीं कर सकता है इसलिए मंदिर सर्वश्रेष्ठ मिलन स्थल बन गया ।
कच और देवयानी दोनों ही भगवान शिवशंकर के अनन्य भक्त थे इसलिए उन्हें शिवालय जाकर भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी ही होती थी । श्रावण मास में तो भोलेनाथ की विशेष पूजा होती है । प्रत्येक सोमवार को लोग उपवास करते हैं । और इस बार का श्रावण मास तो दो मास का है अर्थात अधिक मास भी इसी श्रावण मास में है इसलिए इसका महात्म्य और बढ़ गया है । कच और देवयानी प्रतिदिन भगवान नीलकंठ की पूजा के लिए आते थे । दोनों नैनों ही नैनों में वार्तालाप करते थे । मधुर मुस्कान से हृदय का संदेश एक दूसरे को दे देते थे और फिर वापस चले भी जाते थे । यह नित्य का नियम बन गया था । देवयानी कच को सामने देखकर सर्वस्व विस्मृत कर देती थी । "दर्शन" सुख से नयन तृप्त हो जाते थे उसके किंतु अधरों की प्यास बुझती नहीं थी अपितु और बढ़ जाती थी । बांहें आलिंगन के लिए तरसने लगती थी । हृदय में झंझावात उमड़ने लगता था । देवयानी तो दर्शन सुख से ही भाव विभोर हो जाती थी ।
आज हरियाली तीज थी । आज के दिन सभी स्त्रियां अपने हाथों में मेंहदी और पैरों में महावर लगवाती हैं । धानी रंग के वस्त्र पहनती हैं । सोलह श्रंगार करती हैं । देवयानी भी कच के समक्ष सोलह श्रंगार करके जाना चाहती थी आज । वह अपना संपूर्ण सौन्दर्य प्रदर्शित करना चाहती थी ।
उसने साधिका को बुलवाया और उससे सोलह श्रंगार करने को कहा । देवयानी ने भलीभांति मज्जन करके मल मल कर स्नान किया । साधिका ने उसके हाथों में मेंहदी और पैरों में महावर लगा दिया था । उसने देवयानी के केशों को सुखाकर उनमें सुगंधित तेल लगाया और उनका विन्यास कर उनमें मोगरा और अन्य पुष्पों का गजरा सजा दिया । आंखों में काजल , माथे पर बिंदी, होठों पर लाली लगा दी । बदन पर अंगराग लगाया गया जिससे स्वेद कणों की दुर्गंध अंगराग की सुवास में विलीन हो जाये । साधिका ने उसके पुष्ट उरोजों पर एक कंचुकी कस दी और देवयानी ने आज विशेष रूप से कच द्वारा उपहार में दी गई साड़ी पहनी । साधिका ने गुलाब और अन्य पुष्पों से निर्मित विभिन्न प्रकार के आभूषण पहनाये ।
सोलह श्रंगार करने के पश्चात देवयानी कमल पुष्प की भांति खिल उठी थी । उसने आईने में स्वयं को निहारा तो वह अपनी छवि देखकर स्वयं ही लजा गई । "देखती हूं कि आज कच कैसे मेरा आलिंगन नहीं करेगा ? ये रूप , ये सौन्दर्य, ये यौवन , ये श्रंगार क्या इसके बाद भी वह मुझसे दूर रह सकेगा ? आज तो मैं उसे अपने वश में करके ही रहूंगी" । देवयानी ने कच को वश में करने का दृढ़संकल्प कर लिया ।
इसके पश्चात देवयानी मंदिर की ओर चल दी । पूजा की थाली साधिका ने पकड़ रखी थी । वह मन ही मन भोले भंडारी का स्मरण कर रही थी और उनसे प्रार्थना कर रही थी कि "कच में थोड़ा सा तो प्रणय भाव भर दो प्रभु । उसमें "काम" भाव की कमी दृष्टिगोचर होती है प्रभु, उसे "काम" भाव से परिपूर्ण कर दो प्रभु । वह आधा अधूरा सा प्रेम करता है भगवन , इससे मेरे मन की प्यास बुझ नहीं पाती है । आज उसके मन में इतना श्रंगार रस भर दो कि वह मुझ में ही डूब जाये" ।
देवयानी भगवान शिव का अभिषेक करने लगी । 108 बार अभिषेक करने के पश्चात उसने दुग्ध, दधि, घृत, मिष्ठान्न, गंगाजल, पंचमेवा, नारियल , फल , ताम्बूल आदि से पूजा अर्चना की और आरती भी की । इतना सब करने के पश्चात भी कच मंदिर परिसर में कहीं दिखाई नहीं दिया ।
"इतना विलंब कैसे हो गया है कच को ? समय का तो बहुत निबद्ध है कच , फिर आज वह कहां रह गया" ?
उसके नेत्र कच को ढूंढने लगे । उसका हृदय आशंका से ग्रसित होने लगा । वह उद्विग्न होने लगी । रह रहकर वह मंदिर के द्वार की ओर ताकती किन्तु उसकी नजरें द्वार तक जातीं और कच को वहां नहीं पाकर लौट आतीं थीं । धीरे धीरे शाम होने लगी थी किन्तु कच का कोई अता पता नहीं था । देवयानी ने अन्य शिष्यों से कच के बारे में पूछा किन्तु सब ने इस विषय में अनभिज्ञता ही प्रगट की थी । यह जानकर उसका हृदय अकुला उठा और वह जोर जोर से क्रंदन करने लगा । नेत्रों से अश्रु गिरने लगे "मेरा कच कहां है ? कहीं दैत्यों ने उसे ..." इससे आगे वह सोचना नहीं चाहती थी ।
वह अर्द्ध विक्षिप्त सी अवस्था में अपने आश्रम की ओर दौड़ पड़ी । उसका बदन शिथिल हो रहा था और मस्तिष्क सुन्न । शीघ्र ही वह अपनी कुटिया में आ गई । वहां पर शुक्राचार्य पहले से ही बैठे हुए थे । शुक्राचार्य को देखकर उसका धैर्य समाप्त हो गया और वह उनसे लिपट कर धाडें मारकर रोने लगी । शुक्राचार्य उसे आश्चर्य चकित होकर देखने लगे ।
"क्या हुआ पुत्री ? ऐसे क्यों रो रही हो ? मुझे बताओ कि बात क्या है" शुक्राचार्य ने देवयानी को लगभग झिंझोड़ते हुए पूछा ।
देवयानी रोते रोते बेहाल सी हो गई थी । वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी , बस रोए जा रही थी । शुक्राचार्य उसकी दशा देखकर कांप गये । उनके प्राण तो देवयानी में ही बसते थे इसलिए वे देवयानी की ऐसी दशा कैसे सहन कर सकते थे ? उन्होंने देवयानी के गालों पर हलकी थपकी देकर पुन: पूछा "कुछ तो बोलो पुत्री , आखिर हुआ क्या है ? तुम इस प्रकार रो क्यों रही हो" ?
देवयानी ने स्वयं को संयत किया और सुबकते हुए कहा "तात् , वो कच अभी तक नहीं आया है , पता नहीं कहां पर है वह" ? उसने शुक्राचार्य को कसकर पकड़ लिया ।
"अपनी कुटिया में होगा और कहां होगा" ? शुक्राचार्य ने उसे सांत्वना देते हुए कहा
"वहां नहीं है वह"
"तो और कहां हो सकता है वह ? जहां भी कहीं हो, उसे इस समय तक तो आ जाना चाहिए था" ।
"हां तात् ! पर वह अभी तक नहीं आया है । मैं किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हूं पिता श्री" । देवयानी अभी भी सुबक रही थी ।
"भयभीत मत हो पुत्री । मैं अभी देखकर बताता हूं" शुक्राचार्य ने देवयानी को स्वयं से पृथक किया और "ध्यान मग्न" हो गये । देवयानी आशा भरी दृष्टि से उन्हें देखती रही । कुछ समय ध्यान लगाने के पश्चात शुक्राचार्य ने अपने नेत्र खोल दिये । उनका मुख गंभीर था और वे शोकग्रस्त दिखाई दिये । उनका मुख कांतिहीन लग रहा था और वे गहरे विचारों में निमग्न लग रहे थे ।
"क्या हुआ कच को, बताइये ना पिता श्री ? कहां पर हैं वे और क्या कर रहे हैं ? शीघ्र बताइए तात् , एक एक पल वर्षों जैसा लग रहा है" । देवयानी अधीर होकर बोली ।
शुक्राचार्य शांत बैठे रहे और शून्य में ताकते रहे , बोले कुछ नहीं । इससे देवयानी और चिंतित हो गई । "कुछ तो हुआ है ! वह क्या है और क्यों हुआ है ? यही तो जानना है पर तात् मौन बैठे हुए हैं" ? देवयानी विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करते हुए शुक्राचार्य के पास आई और उनके दोनों स्कंध पकड़ कर जोर से हिलाते हुए कहने लगी
"आप चुप क्यों हैं तात् ? क्या हुआ है मेरे कच को" ? देवयानी हताशा में बोली ।
"अच्छा नहीं हुआ है देव, कच के साथ । उसका वध कर दिया गया है । उसका शव वन में पड़ा हुआ है" । शुक्राचार्य की गंभीर वाणी गूंज उठी । शुक्राचार्य के इतना कहते ही देवयानी अचेत हो गई और भूमि पर गिर पड़ी ।
देवयानी की ऐसी दशा देखकर सभी लोग भयभीत हो गए । साधिकाऐं रुदन करने लगीं । रुदन और क्रंदन से समस्त आश्रम सिहर उठा । शुक्राचार्य ने एक साधिका से एक लोटा जल मंगवाया । एक साधिका झटपट रसोई में गई और एक लोटा शीतल जल ले आई । शुक्राचार्य ने उस जल के कुछ छींटे देवयानी के चेहरे पर छिड़के । उन छींटों से देवयानी की मूर्च्छा टूटी और उसने अपनी आंखें खोल दी । देवयानी को सकुशल देखकर सबकी जान में जान आ गई ।
देवयानी ने आंखें खोलते ही जोर से कहा "कच, तुम कहां हो कच ? मुझे यहां क्यों छोड़कर चले गए कच ? मैं अब जीकर क्या करूंगी कच ? मैं भी आ रही हूं कच, जरा ठहरो" । देवयानी खड़ी होने का प्रयास करने लगी ।
"शांत हो जाओ देव । मुझ पर विश्वास रखो पुत्री" । शुक्राचार्य बोले
"क्या विश्वास रखूं आप पर पिता श्री ? आप तो मेरी माता को भी मृत संजीवनी विद्या से जीवित नहीं कर सके थे तो कच को कैसे जीवित करोगे" ? देवयानी विक्षिप्तों जैसा व्यवहार करने लगी ।
देवयानी ने शुक्राचार्य के मर्म पर चोट की थी और चोट भी बहुत गहरी की थी । शुक्राचार्य का हृदय विदीर्ण हो गया इन व्यंग्य बाणों से । देवयानी की बातों से शुक्राचार्य को रोष आ गया । वे पद्मासन की मुद्रा में ध्यान लगाकर बैठ गये और उनके मुंह से मृत संजीवनी विद्या के मंत्र स्वत: ही उच्चारित होने लगे । मृत संजीवनी विद्या का एक बार उच्चारण समाप्त हो गया था । उसका प्रभाव देखने के लिए वे पुन: ध्यान मग्न होकर बैठ गये । शुक्राचार्य के मुख पर प्रसन्नता के भाव आ गये । शुक्राचार्य कहने लगे
"देव, विकट घड़ी टल चुकी है । मृत संजीवनी विद्या ने कच को पुनर्जीवित कर दिया है और अल्प समय में ही कच यहां पर होगा" । शुक्राचार्य के चेहरे पर मुस्कान आ गई । अपने पिता के चेहरे पर मुस्कान देखकर देवयानी भी खिल गई ।
श्री हरि
15.7.23
Varsha_Upadhyay
16-Jul-2023 09:07 PM
बहुत खूब
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Alka jain
16-Jul-2023 12:52 PM
Nice 👍🏼
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Hari Shanker Goyal "Hari"
16-Jul-2023 01:21 PM
बहुत बहुत आभार मैम
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Gunjan Kamal
16-Jul-2023 12:44 AM
👌👏
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Hari Shanker Goyal "Hari"
16-Jul-2023 01:21 PM
बहुत बहुत आभार मैम 🙏🙏
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